शिक्षण का अर्थ है सीखने में सहायता करना , लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वयं के प्रयासों तथा अनुभवों के आधार पर सीखता है । शिक्षक अपने छात्र को सीखने में प्रेरणा दे सकता है , रुचि उत्पन्न कर सकता है , लेकिन वह स्वयं छात्रा कुछ नहीं सीखता । शिक्षण का शिक्षा से घनिष्ठ सम्बन्ध है । से प्राचीन काल से ही गुरु - शिष्य परम्परा रही है जिसमें गुरु , प्यार एवं स्नेह से अपने शिष्यों को आरम्भ में पढ़ाता था । जैसे - जैसे समाज बदलता रहा शिक्षा का अर्थ भी बदलता रहा । अतः शिक्षण की कोई एक परिभाषा नहीं दी जा सकती , क्योंकि शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है । साथ ही , शिक्षण की प्रक्रिया अधिगम के बिना पूरी नहीं होती , अर्थात् शिक्षण और अधिगम में गहरा सम्बन्ध होता है ।
शिक्षण की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं ⬇️⬇️
स्मिथ के अनुसार , “ शिक्षण , उद्देश्य केन्द्रित क्रिया है । " मोरीसन के अनुसार , “ शिक्षण एक परिपक्व व्यक्ति व कम परिपक्व व्यक्ति के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है , जिसमें अधिक परिपक्व व्यक्ति कम परिपक्व व्यक्ति को शिक्षित करता है । " बर्टन के अनुसार , “ शिक्षण , अधिगम हेतु प्रेरणा , पथ - प्रदर्शन व प्रोत्साहन है । ”
थाइन के अनुसार , ' अधिगम में वृद्धि करना ही शिक्षण है । हफ तथा डंकन के अनुसार , “ शिक्षण चार चरणों वाली एक प्रक्रिया है योजना , निर्देशन , मापन तथा मूल्यांकन । ”
शिक्षा के उद्देश्य से ही शिक्षण के उद्देश्यों का निर्माण होता है । जिस प्रकार शिक्षा के उद्देश्य परिवर्तनशील है वैसे ही शिक्षण के भी उद्देश्य परिवर्तनशील होते है ।
1. बालक को उसके जीवन से सम्बन्धित उपयोगी ज्ञान प्रदान कराना ।
2. बालकों को सीखने के लिए प्रेरित करना , क्योंकि छात्रों के प्रेरित ना होने पर शिक्षण अधिगम उपयुक्त नहीं होगा ।
3. बालक की मानसिक क्षमता का विकास करना । गुणों का विकास करना ।
4. बालकों में पाई जाने वाली पाश्विक प्रवृत्तियों में सुधार करना तथा मानवीय गुणों का विकास करना चाहिए।
5. बालकों में क्रियाशीलता का विकास करना तथा उन्हें क्रिया करने का अवसर प्रदान करना ।
6. बालकों में संवेदनशीलता का विकास करना ।
7. बालकों को प्राप्त सैद्धान्तिक ज्ञान को व्यावहारिक रूप में प्रयोग करने के लिए प्रेरित करना ।
8. बालकों के वातावरण के प्रति समायोजन की क्षमता प्रदान करना ।
9. बालकों के आत्मविश्वास तथा आत्मानुभूति करने योग्य बनाना ।
10. बालकों में सृजनात्मक क्षमता का विकास करना तथा सृजनात्मक कार्य के लिए प्रेरित करना ।
शिक्षक अपने शिक्षण कार्य को प्रभावशाली सरल एवं नियमानुसार के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग करते हैं । शिक्षण नियम विद्यार्थी शिक्षक दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण होता है।
शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रमुख सूत्र इस प्रकार दिए गए हैं
1. सरल से जटिल शिक्षक को शिक्षण के दौरान विद्यार्थियों को पहले सरल बातें बतानी चाहिए , जो एक क्रम में हों अर्थात् पहले गिनती .. .आदि । इसके बाद जटिल बातें बतानी पहाड़ा तब जोड़ , घटाव चाहिए ।
2. ज्ञात से अज्ञात की ओर शिक्षक को शिक्षण के समय सबसे पहले विद्यार्थियों को पढ़ाई जाने वाली विषय वस्तु से सम्बन्धित जानकारी देनी चाहिए । तत्पश्चात् विषय - वस्तु को आधार बनाते हुए नवीन जानकारी देनी चाहिए ।
3. विश्लेषण से संश्लेषण शिक्षक स्वयं पढ़ाई जाने वाली विषय - वस्तु के तथ्यों का विश्लेषण कर व्यापक जानकारी एकत्र करें , तत्पश्चात् उन विश्लेषित विषय वस्तुओं को संयोजित कर संश्लेषित करना चाहिए , ताकि अध्यापन के दौरान उन्हें सुविधा हो ।
4. आगमनात्मक से निगमनात्मक इस विधि के अन्तर्गत शिक्षकों को विषय - वस्तु से सम्बन्धित नियम से पहले उदाहरण देना चाहिए , ताकि बच्चे आसानी से विषय को समझ सकें ।
5. निगमनात्मक से आगमनात्मक इसके अनुसार , शिक्षकों को विषय वस्तु से सम्बन्धित नियमों को पहले बताना चाहिए , तत्पश्चात् उदाहरण देना चाहिए ताकि विद्यार्थी नियम एवं उदाहरणों के मध्य समन्वय बना सकें ।
6. यथार्थपूर्ण से भावनात्मक यह अवधारणा इस बात पर बल देती है कि शिक्षण के समय शिक्षक को भौतिक सामग्रियों के आधार पर बालकों को पढ़ाना चाहिए ; जैसे- पेड़ - पौधे , जानवर तथा पानी इत्यादि । इसके पूर्व वैसी सामग्रियों के विषय में शिक्षण देना चाहिए , जिसे हम प्रत्यक्ष रूप से नहीं समझ सकते , परन्तु महसूस करते हैं ; जैसे - हवा , प्रकाश , तरंग तथा तापमान आदि ।
शिक्षण प्रक्रिया के सिद्धान्त के सन्दर्भ में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों द्वारा कुछ सिद्धान्त दिए गए हैं , जो इस प्रकार है
1. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त अध्यापन का कार्य करने से पूर्व शिक्षकों को पढ़ाने का उद्देश्य निर्धारित करना चाहिए । शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रत्येक विषय वस्तु का अपना एक महत्त्व होता है , जो शिक्षक एवं छात्र दोनों को एक लक्ष्य प्रदान करता है । ये लक्ष्य दो प्रकार के होते हैं- प्रथम सामान्य उद्देश्य तथा द्वितीय विशिष्ट उद्देश्य सामान्य उद्देश्य विषय - वस्तु से सम्बन्धित अध्याय से होता है , जबकि विशिष्ट उद्देश्य का सम्बन्ध किसी दूसरे अध्याय से होता है ।
2. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त यह सिद्धान्त परस्पर सम्बन्ध के आधार पर शिक्षण प्रणाली को मजबूत बनाने पर जोर डालता है । दूसरे शब्दों में , हम कह सकते हैं कि यह सिद्धान्त आगमनात्मक निगमनात्मक शिक्षण नियमों का अनुसरण करता है । यदि कोई अध्यापक अपने वर्ग संज्ञा के विषय में पढ़ाता है , तो उस अध्याय को वर्तमान में उपस्थित उदाहरणों से जोड़कर पढ़ाना चाहिए , जैसे - कुर्सी , टेबल , कलम एवं आम आदि ।
3. अभिप्रेरणा का सिद्धान्त शिक्षण - अधिगम प्रक्रिया में अभिप्रेरणा असाधारण भूमिका निभाती है । यह अभिप्रेरणा आन्तरिक एवं बाह्य दो रूपों में होती है । आन्तरिक अभिप्रेरणा व्यक्तिगत रूप से स्वयं द्वारा संचालित होती हैं तथा यह किसी कार्य को करने के लिए व्यक्ति को स्वयं अभिप्रेरित करती है ।
4. पुनरीक्षण एवं अभ्यास का सिद्धान्त यह प्रसिद्ध लोकोक्ति है कि अभ्यास मनुष्य को पूर्ण बनाता है । यह लोकोक्ति शिक्षण - अधिगम प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । शिक्षण के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण पहलू होता है , क्योंकि शिक्षक विद्यार्थियों को विषय - वस्तु से सम्बन्धित अभ्यास एवं गृहकार्य प्रदान करता है , जो छात्रों की मूल्यांकन की एक विधि भी है । यह मूल्यांकन प्रक्रिया छात्रों को रचनात्मक मूल्यांकन में सहायता करती है ।
5. पुनर्बलन का सिद्धान्त यह सिद्धान्त प्रसिद्ध व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक बी . एफ . स्किनर द्वारा दिया गया है । इस सिद्धान्त के अनुसार , पुनर्बलन दो प्रकार के होते हैं- प्रथम , सकारात्मक पुनर्बलन जो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की दर को बढ़ाता है तथा द्वितीय , नकारात्मक पुनर्बलन जो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की दर को घटाता है । सकारात्मक पुनर्बलन पुरस्कार से सम्बन्धित होता है , जो व्यक्तिगत रूप से कठोर परिश्रम पर आधारित होता है ।
6. उत्तेजना या प्रोत्साहन का सिद्धान्त उत्तेजना वस्तुतः किसी कार्य को व्यक्तिगत रूप से करने की अवस्था को दर्शाती है । इस सिद्धान्त के अनुसार , यदि कोई विद्यार्थी व्यक्तिगत रूप से कार्य के प्रति उत्तेजित रहता है , तो इसका तात्पर्य है कि वह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दौरान अधिक सक्रिय एवं सृजनशील होगा । किसी व्यक्ति को उत्तेजित करने के लिए । विभिन्न कारक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं , जो वातावरण , व्यक्तिगत अभिरुचि , शिक्षण तकनीक तथा शिक्षण अधिगम सामग्री के रूप में होता है ।
सूक्ष्म शिक्षण का प्रयोग शिक्षण कौशलों के विकास के लिए किया जाता है । शिक्षण कौशलों से तात्पर्य उन शिक्षक व्यवहार एवं स्वरूपों से होता है , जो छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के लिए प्रभावशाली होते हैं ।
एन.एल. गेज ने शिक्षण कौशल को इस तरह परिभाषित किया है , " शिक्षण कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है , जिसे अध्यापक अपनी कक्षा - शिक्षण में प्रयोग करता है एवं जो शिक्षण - क्रम की उन क्रियाओं से सम्बन्धित होता है , जिन्हें शिक्षक अपनी कक्षा अन्तःक्रिया में लगातार उपयोग करता है । ”
अध्यापक अपने शिक्षण में अनेक प्रकार के कौशलों का उपयोग करता है । इनमें से कुछ प्रमुख आधारभूत कौशल निम्न प्रकार हैं •
विन्यास प्रेरणा
उद्दीपन
समीपता
पुनर्बलन
विकेन्द्री प्रश्न
दृष्टान्त देना
प्रश्न पूछना
मौन एवं अशाब्दिक अन्तः प्रक्रिया
व्याख्यान
नियोजित पुनरावृत्ति एवं सम्प्रेषण
खोजपूर्ण प्रश्न
छात्र व्यवहार का ज्ञान
उच्चस्तरीय प्रश्न करना
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