आनुवंशिकता और वातावरण
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आनुवंशिकता और वातावरण दोनों का बालकों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। आनुवंशिकता के कारण वंशानुगत गुणों का हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होता है, वहीं वातावरण के कारण बालकों का सामाजिक, सांस्कृतिक, सांवेगिक, धार्मिक और शैक्षणिक विकास होता है। आनुवंशिकता और वातावरण दोनों का सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव बालकों में होने वाले विकास पर पड़ता है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। शिक्षा के दृष्टिकोण से भी इनका व्यापक महत्व है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को अधिक प्रभावी बनाने में यह शिक्षकों की मदद करते हैं।
आनुवंशिक या वंशानुगत गुणों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरण होने की प्रक्रिया को आनुवंशिकता या वंशानुक्रम (heredity) कहा जाता है। आनुवंशिकता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक गुणों का स्थानान्तरण बालकों में होता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा आनुवंशिकता के सन्दर्भ में कुछ परिभाषाएँ दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं।
बी.एन. झा के मतानुसार, "वंशानुक्रम, व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं का पूर्ण योग है।"
पी. जिस्बर्ट के मतानुसार, "प्रकृति में प्रत्येक पीढ़ी का कार्य माता-पिता द्वारा सन्तानों में जैवकीय या मनोवैज्ञानिक विशेषताओं का हस्तान्तरण करना है। इस प्रकार हस्तान्तरित विशेषताओं की मिली-जुली गठरी को
वंशानुक्रम के नाम से पुकारा जाता है।"
वुडवर्थ के मतानुसार, "वंशानुक्रम में वे सभी बातें आ जाती हैं, जो जीवन का आरम्भ करते समय, जन्म के
समय नहीं वरन् गर्भाधान के समय, जन्म से लगभग नौ माह पूर्व, व्यक्ति में उपस्थित थीं।"
डगलस एवं हॉलैण्ड के मतानुसार, "एक व्यक्ति से वंशानुक्रम में वे सब शारीरिक बनावटे, शारीरिक
विशेषताएँ, क्रियाएँ या क्षमताएँ सम्मिलित रहती हैं, जिनको वह अपने माता-पिता, अन्य पूर्वजों या प्रजाति से
प्राप्त करता है।"
जेम्स ड्रेवर के मतानुसार, “माता-पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का सन्तानों में हस्तान्तरण होना वंशानुक्रम है।"
आनुवंशिकता के सिद्धान्त
वंशानुक्रम पर अनेक अध्ययन हुए हैं। इन अध्ययनों के आधार पर कुछ सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए उनका विवरण निम्नलिखित है--
1.बीजकोष की निरन्तरता का सिद्धान्त इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अपने अध्ययनों के फलस्वरूप बीजमैन ने किया है। उनके अनुसार शरीर का निर्माण करने वाला मूल जीवाणु कभी नष्ट नहीं होता यह अण्डकोष और शुक्रकोष के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होता रहता है। इस प्रकार मूल जीवाणु में हस्तान्तरित होने की विशेषता निहित होती है, इसीलिए एक व्यक्ति अपने पूर्वजों का प्रतिरूप होता है उसमें कई पीढ़ियों तक पूर्वजों के गुण सन्निहित रहते हैं।
2. समानता का सिद्धान्त- "समान, समान को जन्म देता है"
अर्थात् जैसे माता-पिता होंगे सितारे भी उसी के अनुरूप उत्पन्न होगी। प्रत्येक जीव जन्तु की विशेषता होती है कि वह अपने जैसी समान संतति (बच्चा) को जन्म देता है। उदाहरणस्वरूप-मानव की सन्तान मानव जैसी एवं पशु की पशु जैसी होगी।
3. प्रत्यागमन का सिद्धान्त - बुद्धिमान माता-पिता की बुद्धिमान सन्तान तथा कम बुद्धि वाले माता-पिता की मन्दबुद्धि सन्तान होना एक स्वाभाविक बात है लेकिन यदि इसके विपरीत बुद्धिमान माता-पिता की सन्तान मूर्ख उत्पन्न हो या मूर्ख माता-पिता की सन्तान तीव्र बुद्धि वाली पैदा हो, तो एक बड़ा प्रश्न उठ खड़ा होता है कि इसका कारण क्या है? इसका अन्तर प्रत्यागमन का नियम देने में सक्षम है। यह नियम बताता है कि विपरीत गुणों का उत्पन्न होना ही प्रत्यागमन (Regression).
4.जीव सांख्यिकी सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के जन्मदाता फ्रांसिस गाल्टन थे। अपने अनेक अध्ययनों के निष्कर्षों की उन्होंने सांख्यिकीय माध्यम से व्याख्या की है, इसीलिए इसे जीव सांख्यिकी नियम कहा जाता है। गाल्टन का कहना है कि संतान अपने माता-पिता से ही सभी गुणों को नहीं प्राप्त करतीं, बल्कि पितामह और उससे भी कई पीढ़ियों के आगे की विशेषताओं का संक्रमण होता है इतना ही नहीं पितृपक्ष से ही गुण नहीं आते हैं वरन् पितृपक्ष से भी गुणों का संक्रमण उसी अनुपात में होता है।
5. अर्जित गुणों के अवितरण का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार, माता-पिता के जीवन में अर्जित गुणों का संक्रमण उनकी सन्तानों में नहीं होता है। इस सन्दर्भ में वुडवर्थ का कहना है कि "यदि शारीरिक श्रम करते-करते एक स्त्री या पुरुष के हाथ कठोर (कड़े) हो जाएँ, तो उसकी त्वचा पर हुए इस परिवर्तन का प्रभाव उनकी काम ग्रन्थियों में पित्रैक्यों पर किस प्रकार पड़ सकता है? उनकी सन्तानों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।"
6. अर्जित गुणों के वितरण का सिद्धान्त- अर्जित गुणों का
वितरण सन्तानों में होता है। इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण अध्ययन किए गए हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं
7. लैमार्क का अध्ययन- लैमार्क ने जिराफ का अध्ययन करके बताया कि जिराफ की गर्दन पहले लम्बी नहीं थी, परन्तु परिस्थिति वश जीवन निर्वाह करने के लिए वह अपनी गर्दन ऊपर उठाता रहा, क्योंकि बिना गर्दन ऊपर
किए वह पत्ती नहीं खा सकता था और इसी तरह अन्य पीढ़ी के जिराफ भी करते रहे, फलत: उस प्रजाति की गर्दन लम्बी हो गई।
8. डार्विन का अध्ययन- इस सन्दर्भ में डार्विन का विचार लैमार्क से कुछ भिन्न है। जहाँ लैमार्क का कहना है कि जीवन रक्षा के लिए प्राणी जो विशिष्ट गुण अर्जित करता है. उसका संक्रमण होता है। वहीं डार्विन का मत है कि प्राणी या व्यक्ति को जीवित रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है जिनमें संघर्ष की क्षमता होती है, वे जीवित रह जाते हैं। जो कमजोर होता है, संघर्ष नहीं कर सकता है, वह नष्ट हो जाता है।
9.भिन्नता का सिद्धान्त सोरेन्सन के अनुसार, “भिन्नता पाए जाने का कारण माता-पिता के बीज कोषों की विशिष्टताएँ हैं। बीज कोष में अनेक जीन होते हैं जो विभिन्न प्रकार से संयुक्त होकर एक-दूसरे से भिन्न बच्चों का निर्माण करते हैं।" जीव वैज्ञानिकों का मत कि वंश सूत्रों के संयोग में 16777216 प्रकार की भिन्नताओं की सम्भावना हो सकती है।
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